Movie/Album: रेनकोट (2004)
Music By: देबज्योती मिश्रा
Lyrics By: रितुपर्णो घोष (गीत), गुलज़ार (शायरी)
Performed By: शुभा मुदगल, हरिहरन, गुलज़ार
सघन सावन लायी कदम बहार
मथुरा से डोली लाये चारों कहार
नहीं आये केसरिया बालम हमार
अंगना बड़ा सुनसान
पिया तोरा...
अपने नयन से नीर बहाये
अपनी जमुना ख़ुद आप ही बनावे
लाख बार उसमें ही नहाये
पूरा न होयी अस्नान
सूखे केस, रूखे बेस
मनवा बेजान
पिया तोरा...
बोल सखी काहे करी साचों सिंगार
ना पहिनब अब सना-कांच न हार
खाली चन्दन लगाओ अंग मा हमार
चन्दन गरल समान
पिया तोरा...
शुभा मुदगल, गुलज़ार
पिया तोरा कैसा अभिमान
किसी मौसम का झौंका था
जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर
तिरछी कर गया है
गये सावन में ये दीवारें यूँ सीली नहीं थीं
न जाने इस दफ़ा क्यूँ इनमें सीलन आ गयी है
दरारें पड़ गयी हैं
और सीलन इस तरह बहती है जैसे
ख़ुश्क रुख़सारों पे गीले आँसू चलते हों
सघन सावन लायी कदम बहार
मथुरा से डोली लाये चारों कहार
नहीं आये केसरिया बलमा हमार
अंगना बड़ा सुनसान
ये बारिश गुनगुनाती थी
इसी छत की मुंडेरों पर
ये घर की खिड़कियों के काँच पर
उंगली से लिख जाती थी संदेसे
बिलखती रहती है बैठी हुई
अब बंद रोशनदानों के पीछे
अपने नयन से नीर बहाये
अपनी जमुना ख़ुद आप ही बनावे
दोपहरें ऐसी लगती हैं
बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी
और ना कोई चाल चलता है
लाख बार उसमें ही नहाये
पूरा न होयी अस्नान
फिर पूरा न होयी अस्नान
सूखे केस रूखे भेस
मनवा बेजान
न दिन होता है अब न रात होती है
सभी कुछ रुक गया है
वो क्या मौसम का झौंका था
जो इस दिवार पर लटकी हुई तस्वीर
तिरछी कर गया है
पिया तोरा...
Music By: देबज्योती मिश्रा
Lyrics By: रितुपर्णो घोष (गीत), गुलज़ार (शायरी)
Performed By: शुभा मुदगल, हरिहरन, गुलज़ार
हरिहरन
पिया तोरा कैसा अभिमानसघन सावन लायी कदम बहार
मथुरा से डोली लाये चारों कहार
नहीं आये केसरिया बालम हमार
अंगना बड़ा सुनसान
पिया तोरा...
अपने नयन से नीर बहाये
अपनी जमुना ख़ुद आप ही बनावे
लाख बार उसमें ही नहाये
पूरा न होयी अस्नान
सूखे केस, रूखे बेस
मनवा बेजान
पिया तोरा...
बोल सखी काहे करी साचों सिंगार
ना पहिनब अब सना-कांच न हार
खाली चन्दन लगाओ अंग मा हमार
चन्दन गरल समान
पिया तोरा...
शुभा मुदगल, गुलज़ार
पिया तोरा कैसा अभिमान
किसी मौसम का झौंका था
जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर
तिरछी कर गया है
गये सावन में ये दीवारें यूँ सीली नहीं थीं
न जाने इस दफ़ा क्यूँ इनमें सीलन आ गयी है
दरारें पड़ गयी हैं
और सीलन इस तरह बहती है जैसे
ख़ुश्क रुख़सारों पे गीले आँसू चलते हों
सघन सावन लायी कदम बहार
मथुरा से डोली लाये चारों कहार
नहीं आये केसरिया बलमा हमार
अंगना बड़ा सुनसान
ये बारिश गुनगुनाती थी
इसी छत की मुंडेरों पर
ये घर की खिड़कियों के काँच पर
उंगली से लिख जाती थी संदेसे
बिलखती रहती है बैठी हुई
अब बंद रोशनदानों के पीछे
अपने नयन से नीर बहाये
अपनी जमुना ख़ुद आप ही बनावे
दोपहरें ऐसी लगती हैं
बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी
और ना कोई चाल चलता है
लाख बार उसमें ही नहाये
पूरा न होयी अस्नान
फिर पूरा न होयी अस्नान
सूखे केस रूखे भेस
मनवा बेजान
न दिन होता है अब न रात होती है
सभी कुछ रुक गया है
वो क्या मौसम का झौंका था
जो इस दिवार पर लटकी हुई तस्वीर
तिरछी कर गया है
पिया तोरा...
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